एक छात्र आंदोलन के 60 साल

स्वतंत्रता आन्दोलन में छात्रों की प्रमुख भूमिका रही है, इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता। महात्मा गांधी के आह्वान पर लाखों छात्र अंग्रेजी सरकार द्वारा स्थापित स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों को छोडकर अनंत क्षेत्र में उतर आए थे। अंग्रेजी सरकार ने उन्हें उनके कैरियर की दुहाई दी। हर देश में साम्राज्यवादी सरकारें आम तौर पर युवा पीढी को मूल मुद्दों से हटाने के लिए कैरियर का लालच खडा करती ही है और हर युग में ऐसे लोग भी मिल जाते हैं जो उस लालच में फंस कर मूल मुद्दों को दफनाने का प्रयास करते हैं। इसलिए जहां एक ओर भगत सिंह और चन्द्रशेखर आजाद जैसे विद्यार्थी भारत माता के लिए अपना बलिदान दे रहे थे वहीं दूसरी ओर हजारों की संख्या में कैरियर को मुख्य मुद्दा मानकर अनेक छात्र आईसीएस का विकल्प स्वीकार कर के अपने ही देश के खिलाफ अंग्रेजी मालिकों की सेवा में जुटे हुए थे। यदि इस ह्ष्टि से देखा जाए तो इस देश का छात्र आन्दोलन जो सही अर्थों में राष्ट्रीय प्रश्नों को समर्पित है, बहुत पुराना है।
परन्तु अंग्रेजों के चले जाने के बाद छात्र आन्दोलन की दिशा क्या हो, इसको लेकर एक बहस प्रारम्भ हो गयी। जिनके हाथ में सत्ता आई उनको लगता था कि अब सब उद्देश्य पूरे हो गए हैं इसलिए छात्र आन्दोलन की कोई आवश्यकता ही नहीं है। इसलिए अब छात्रों को अपने कैरियर की ओर ही ध्यान देना चाहिए। प्रसिद्ध चिंतक आचार्य नरेन्द्र देव ने कहीं लिखा भी है कि जब कोई राजनैतिक दल सत्ता प्राप्त कर लेता है तो सबसे पहले वह उन संघर्षशील तत्वों को समाप्त करने का प्रयास करता है जिन्होंने उसकी सत्ता प्राप्ति में सहायता की हो। इसलिए अंग्रेजों के चले जाने के बाद सत्ताधारी तत्वों को छात्र आन्दोलन बेमाइने लगने लगा, लेकिन यह प्रश्न उठा कि छात्रों की सकारात्मक ऊर्जा के लिए कोई न कोई माध्यम तो रहना ही चाहिए। सत्ताधारी तत्वों ने इसका भी रास्ता निकाला कि ऐसे छात्र संगठन खडे कर दिए जाएं जो सत्ताधारी दल के मात्र उपांग हों और उन्हीं के हितों का संवर्धन क रने के लिए प्रयुक्त किए जा सकें। यह इस देश के छात्र आन्दोलन को दिग्भ्रमित करने का सरकारी प्रयास था इसी कालखण्ड में छात्र आन्दोलन को इस देश के इतिहास और विरासत के खिलाफ खडा करने के प्रयास भी हुए। यह सिध्द करने के प्रयास प्रारम्भ हुए कि इस देश की विरासत और इतिहास दखियानूसी, अवैज्ञानिक, जनविरोधी है। ऐसे लोगों को आशा की किरण और मुक्ति का रास्ता रूस और चीन में दिखाई देने लगा। ये वे देश थे जिनमें सत्ताधारियों ने सत्ता की कुर्सी तक पहुंचने के लिए लाखों लाशों के ढेर बिछाए थे, कुछ लोग इन्हीं ढेरों से मुक्ति का रास्ता तलाश रहे थे और देश के छात्र आन्दोलन को मास्को और पीकिंग का बंधक बना देना चाहते थे। ऐसे वातावरण में स्वतंत्रता संग्राम के छात्र आन्दोलन की विरासत को सहेजते हुए 1949 में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद का गठन हुआ। इस गठन की आवश्यकता शायद इसलिए भी अनुभव की जाने लगी थी क्योंकि स्वतंत्रता आन्दोलन की छात्र विरासत पर कौओं और चीलों की तरह राजनीतिक दल झपट रहे थे और उसे बदरंग करने का प्रयास भी कर रहे थे। विद्यार्थी परिषद किसी राजनीतिक दल का ना उपांग था और न उसके लिए भौंपू बजाने वाला उसका हस्तक। शायद ये ही कारण था कि शुरू-शुरू में विद्यार्थी आन्दोलन को राजनीतिक दलों को चश्में से देखने वाले लोगों को विद्यार्थी परिषद की प्रकृति और स्वभाव समझने में कठिनाई हुई। कुछ ने विद्यार्थी परिषद को उस समय के जनसंघ का छात्र मोर्चा बताना शुरू कर दिया लेकिन उनका यह भ्रम तब टूटा जब 1967 में जनसंघ ने अनेक राज्यों में सत्ता में भागीदारी की और अनेक मुद्दों पर विद्यार्थी परिषद ने उन सरकारों का विरोध किया। जो छात्र संगठन राजनीतिक दलों से जुडे होते हैं उनके लिए इस प्रकार का विरोध करना संभव नहीं होता। 1967 में पूरे भारत में शिक्षा क्षेत्र में भारतीय भाषाओं की महत्ता को स्थापित करने के लिए जो बहुत बडा आन्दोलन चला उसका श्रीगणेश विद्यार्थी परिषद ने ही किया था। विद्यार्थी परिषद को इसका श्रेय जाता है कि उस कालखण्ड में उसके आन्दोलन के कारण अधिकांश विश्वविद्यालयों में शिक्षा और परीक्षा का माध्यम भारतीय भाषाओं को स्वीकार किया गया। इस आन्दोलन के कारण समाज का वह वर्ग भी आगे बढने लगा जो शिक्षा में अंग्रेजी माध्यम की अनिवार्यता के कारण अभी तक पीछे छूट जाता था। यह भारतीय शिक्षा के इतिहास की युगान्तरकारी घटना थी और इसका श्रेय बहुत सीमा तक विद्यार्थी परिषद को ही जाता है। यहां यह दोहराने की आवश्यकता नहीं है कि जब गुजरात में नव निर्माण आन्दोलन भडका और प्रदेश का छात्र हर क्षेत्र में व्यापक सडांध को दूर करने के लिए उठ खडा हुआ तो उसमें प्रमुख भूमिका विद्यार्थी परिषद की रही।
जय प्रकाश नारायण ने जब समग्र क्रान्ति का बिगुल बजाया तो उनके इस संदेश को देश के जन-जन तक पहुंचाने का महत्वपूर्ण कार्य अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने ही किया। जयप्रकाश नारायण स्वयं मानते थे कि उनका समग्रप्रांती आन्दोलन विद्यार्थी परिषद के बिना आगे नहीं बढ सकता था। इस आन्दोलन को कुचलने के लिए जब सत्तााधारियों ने भारतीय संविधान को ताक पर रखकर तानाशाही साम्राज्य स्थापित कर लिया और बहुत से तथाकथित क्रान्तिकारी सत्तााधीशों की चाटुकारिता में जुट गए और सत्तााधीशों से जुडे हुए छात्र संगठन बहरे और गूंगे हो गए तब विद्यार्थी परिषद ने अन्य राष्ट्रवादियों की शक्तियों के साथ मिलकर इस तानाशाही संरचना को उसी प्रकार चुनौती दी थी जिस प्रकार कभी अंग्रेज शासकों के वक्त में देश की छात्र शक्ति ने अंग्रेजों को चुनौती दी थी। विद्यार्थी परिषद के हजारों कार्यकर्ता तानाशाही साम्राज्य की जेलों में गए।
विद्यार्थी परिषद की पहचान और प्रकृति की सबसे बडी परीक्षा तब हुई जब 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनीं और भारतीय जनसंघ का उसमें विलय हो गया। जनता पार्टी में जो अन्य दल शामिल हुए थे उनमें प्रमुख कांग्रेस का एक ग्रुप और विभिन्न समाजवादियां पार्टियां थीं। जनता पार्टी ने इस बात की जिद्द की क् िविद्यार्थी परिषद को भंग कर दिया जाए और उसके कार्यकर्ता अपने आप को जनता पार्टी के आधिकारिक छात्र संगठन का हिस्सा घोषित करें। पूर्ववर्ती जनसंघ के भी कुछ लोग इसके पक्ष में थे परन्तु विद्यार्थी परिषद ने इससे स्पष्ट अस्वीकार कर दिया और अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाए रखा, यह विद्यार्थी परिषद का असली और स्वतंत्र पहचान का स्पष्ट संकेत था। विद्यार्थी परिषद ने जब भारतीय जनता पार्टी द्वारा भी कुछ जगह प्राईवेट विश्वविद्यालयों और शिक्षा के निजीकरण को प्रोत्साहित किए जाने की नीति का विरोध ही नहीं किया बल्कि इस मुद्दे पर जन आन्दोलन खडा कर दिया तब अनेक तथस्थ विश्लेषकों ने भी स्वीकार करना शुरू कर दिया कि विद्यार्थी परिषद राष्ट्र के पुनर्निर्माण को समर्पित स्वतंत्र छात्र संगठन है। आज इस छात्र संगठन को कार्य करते हुए साठ साल पूरे हो गए हैं। दुर्भाग्य से भारत का इतिहास फिर संक्रमण काल के चौराहे पर आ खडा हुआ है विदेशी शक्तियां भारत को घेरने का ही प्रयास नहीं कर रहीं है, बल्कि नीति निर्माण के क्षेत्र में उन्होंने भारत के भीतर कहीं गहरे तक घुसपैठ कर ली है। यही कारण है कि पिछले कुछ वर्षों से सत्तााधारी गुट इस प्रकार के निर्णय ले रहे हैं जिससे भारत, अमेरिका का बंधक देश बनता जा रहा है देश की युवा और छात्र पीढी ऐसे षडयंत्रों को बेनकाब न कर सके, इसके लिए यह प्रयास किया जा रहा है कि शिक्षा को भी उन्हीं निजी हाथों में सौंप दिया जाए जो अंग्रेजो के वक्त से ही विद्यार्थियों को राष्ट्रीय प्रश्नों को तोडकर कैरियर के उन प्रश्नों में उलझा लिया जाए जो अंतत: छात्र शक्ति की धार को कुंठित कर दे तब इन स्वार्थी तत्वों को चुनौती देने वाला कोई नहीं रहेगा और इस राष्ट्र की पहचान बदलने का विदेशी खेल खुलकर खेला जा सकेगा। कहना होगा विद्यार्थी परिषद ने अपनी यात्रा के 60 साल पूरे कर लिए हैं लेकिन इस पडाव पर उसके आगे चुनौतियां और भी सख्त हैं।

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