जानकारी की कमी, कृषि कानूनों पर आंदोलन
किसानों के हितों में तीन बिल (विधेयक) पारित होने के साथ ही कृषि सुधार की पहल एक राजनीतिक मुद्दा बन गई है। बीते आठ दिन से किसान आंदोलन के नाम पर कुछ राजनीतिक दल और संगठन किसानों को भड़काकर राजनीतिक रोटियां सेंक रहे है। परिणामस्वरूप कई राज्यों में किसान सड़क पर उतर चुके हैं। कृषि सुधार वास्तव में हैं क्या और उनसे नफा है या नुकसान, यह बात पीछे छोड़ हर सियासी दल आगामी विधानसभा चुनावों के लिए इस मुद्दे को अवसर मानते हुए किसानों के आंदोलन की आग में घी डालने पर उतर आया है। नतीजन पंजाब से लेकर महाराष्ट्र तक कई दल इसका विरोध कर रहे हैं। इन विधेयकों के विरोध में शिरोमणि अकाली दल की हरसिमरत कौर बादल ने केंद्रीय मंत्री पद से इस्तीफा तक दे दिया है। निहित स्वार्थ-प्रेरित आढ़तिया लॉबी द्वारा भड़काए गए किसानों के सड़क पर उतर आने के बाद अब कुछ राजनीतिक दलों में इन विधेयकों का विरोध करते हुए किसान हितैषी दिखने की होड़ मच गई है। दरअसल यह आढ़तिया लॉबी द्वारा प्रायोजित और वोट बैंक की राजनीति से प्रेरित विरोध है। ऐसे में यह जानना बेहद जरुरी है कि इन विधेयकों में क्या खास है और क्यों इनका विरोध हो रहा है। क्योंकि इसमें बात केवल राजनीति की नहीं है, बल्कि इसमें देश के किसानों की दुर्गति का सूत्र है और पूरे देश के लिए इन सूत्रों को समझना और समझाना जरूरी है।
1-कृषि उत्पादन व्यापार और वाणिज्य विधेयक 2020 इसके मुताबिक किसान मनचाही जगह पर अपनी फसल बेच सकते हैं। बिना किसी रुकावट दूसरे राज्यों में भी फसल बेच और खरीद सकते हैं। इसका मतलब है कि एपीएमसी (APMC) के दायरे से बाहर भी फसलों की खरीद-बिक्री संभव है। साथ ही फसल की बिक्री पर कोई टैक्स नहीं लगेगा। ऑनलाइन बिक्री की भी अनुमति होगी। इससे किसानों को अच्छे दाम मिलेंगे।
2- मूल्य आश्वासन एवं कृषि सेवाओं पर कृषक अनुबंध विधेयक 2020 देशभर में कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग को लेकर व्यवस्था बनाने का प्रस्ताव है। फसल खराब होने पर उसके नुकसान की भरपाई किसानों को नहीं बल्कि एग्रीमेंट करने वाले पक्ष या कंपनियों को करनी होगी। किसान कंपनियों को अपनी कीमत पर फसल बेचेंगे। इससे किसानों की आय बढ़ेगी और बिचौलिया राज खत्म होगा।
3- आवश्यक वस्तु संशोधन बिल आवश्यपक वस्तु अधिनियम को 1955 में बनाया गया था। अब खाद्य तेल, तिलहन, दाल, प्याज और आलू जैसे कृषि उत्पाशदों पर से स्टॉक लिमिट हटा दी गई है। बहुत जरूरी होने पर ही इन पर स्टॉ क लिमिट लगाई जाएगी। ऐसी स्थितियों में राष्ट्रीेय आपदा, सूखा जैसी अपरिहार्य स्थितियां शामिल हैं। प्रोसेसर या वैल्यूा चेन पार्टिसिपेंट्स के लिए ऐसी कोई स्टॉंक लिमिट लागू नहीं होगी। उत्पादन, स्टोरेज और डिस्ट्रीब्यूशन पर सरकारी नियंत्रण खत्म होगा। किसानों को सशक्त बनायेंगे पारित कृषि विधेयक: नीति आयोग नीति आयोग के उपाध्यक्ष राजीव कुमार ने लोकसभा में कृषि क्षेत्र से संबंधित दो विधेयकों के पारित होने का स्वागत करते हुए कहा कि ये किसानों को सशक्त बनायेंगे और कृषि के भविष्य पर इनका व्यापक प्रभाव पड़ेगा। इसे भी पढ़ें: पंजाब में 24-26 सितंबर तक रेल रोकने की योजना क्यों बना रहे हैं किसान? किसानों को किस बदलाव से है ऐतराज? किसान और व्यापारियों को इन विधेयकों से एपीएमसी मंडियां खत्म होने की आशंका है। कृषि उत्पादन व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) विधेयक 2020 में कहा गया है कि किसान अब एपीएमसी मंडियों के बाहर किसी को भी अपनी उपज बेच सकता है, जिस पर कोई शुल्क नहीं लगेगा, जबकि एपीएमसी मंडियों में कृषि उत्पादों की खरीद पर विभिन्न राज्यों में अलग-अलग मंडी शुल्क व अन्य उपकर हैं। इसके चलते आढ़तियों और मंडी के कारोबारियों को डर है कि जब मंडी के बाहर बिना शुल्क का कारोबार होगा तो कोई मंडी आना नहीं चाहेगा। किसानों को यह भी डर है नए कानून के बाद एमएसपी पर फसलों की खरीद सरकार बंद कर देगी। दरअसल, कृषि उत्पादन व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) विधेयक 2020 में इस संबंध में कोई व्याख्या नहीं है कि मंडी के बाहर जो खरीद होगी वह न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) से नीचे के भाव पर नहीं होगी। किसानों के मुद्दा कम राजनीति ज्यादा किसान नेता राजेवाल का यह भी कहना है कि किसानों और व्यापारियों के आपसी विवाद के निपटारे के लिए विधेयक में सब-डिविजनल मजिस्ट्रेट द्वारा गठित समाधान बोर्ड की व्यवस्था रखी गई है, जो किसान विरोधी है। उनका कहना है कि किसानों के पास अदालत में जाने का विकल्प होना चाहिए। यह हास्यास्पद है। अदालत में मुकदमेबाजी के लिहाज से किसान और व्यापारी के बीच कौन ज्यादा समर्थ है, यह कोई अनुमान की बात नहीं है। इस लिहाज से यह हमेशा किसान के पक्ष में होगा कि ऐसे विवाद का जल्दी से जल्दी समाधान हो, जो कि अदालत में नहीं हो सकता। जाहिर है कि जिन समस्याओं को किसानों के मत्थे मढ़ा जा रहा है, उनसे किसानों को कोई नुकसान नहीं है। उलटा, उससे दशकों से कृषि विपणन की छाती पर बैठे उन बिचौलियों की शामत आने वाली है जो किसानों के हक की कमाई पर मौज उड़ाते रहे हैं। राजेवाल जैसे किसान नेताओं से भी ज्यादा रोचक प्रतिक्रियाएं विपक्ष की हैं। मोदी सरकार के खिलाफ मुद्दों को तरसती कांग्रेस पार्टी के लिए पंजाब के किसानों का विरोध बिल्ली के भाग्य से छींका फूटने के समान था, जिसे पार्टी ने तुरंत लपक लिया। बिना यह सोचे कि विरोध की यह हवा सिर्फ हरियाणा और पंजाब के किसानों के बीच चल रही है। देश के दूसरे सभी राज्यों के किसान और किसान उत्पादन संगठन केंद्र सरकार के कृषि सुधारों से बेहद खुश हैं। लेकिन कांग्रेस के प्रवक्ता रणदीप सिंह सुरजेवाला ने इन विधेयकों को भारतीय कृषि के ताबूत में आखिरी कील बताया और कहा कि इससे किसान पूंजीपतियों का शिकार बन जाएंगे। जहां तक किसानों की बात है तो ऐसा लगता है कि किसान नई व्यवस्था का विरोध महज इसलिए कर रहे हैं, क्योंकि एक तो वे उसके तौर-तरीकों से परिचित नहीं और दूसरे इसे लेकर सुनिश्चित नहीं कि इससे उन्हें वास्तव में लाभ होने वाला है। देश में करीब 80-85 प्रतिशत किसान छोटे किसान हैं, लेकिन वे यही मानकर चलते हैं कि खेती-किसानी के मामले में बड़े किसान जो कुछ कहते हैं वही उनके हित में होता है। उचित यह होगा कि सरकार एमएसपी को लेकर फैलाई जा रही अफवाहों का खंडन करने के साथ ही ऐसी कोई कानूनी पहल करे, जिससे किसानों के समक्ष यह साफ हो सके कि इस व्यवस्था को खत्म करने की बातें कोरी अफवाह हैं। वास्तव में, इन तीनों विधेयकों की पूरी जानकारी किसानों तक नहीं पहुंच पाई। यह सरकार की विफलता ही मानी जाएगी कि किसानों की कल्याण-कामना से प्रेरित होकर इतने महत्वपूर्ण और दूरगामी प्रभाव वाले बदलाव करते हुए भी केंद्र सरकार वास्तविक लाभाíथयों तक समय रहते सही जानकारी नहीं पहुंचा सकी। इसीलिए विपक्ष द्वारा झूठ और भ्रम के प्रसार की गुंजाइश बनी। वास्तव में, ये विधेयक कृषि-उपज की विक्रय-व्यवस्था को व्यापारियों/ आढ़तियों से मुक्त कराने का मार्ग प्रशस्त करेंगे। इसके साथ ही, बाजार के उतार-चढ़ावों से भी किसानों को सुरक्षा-कवच प्रदान करेंगे।
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