कितनी डरावनी थी 19 जनवरी की वो रात
-कट्टरपंथियों के जुल्म से तंग आकर शुरू हुआ था विस्थापन
-अपने देश में विस्थापितों की जिंदगी जी रहे है पंडित
मुकेश शर्मा, फरीदाबाद। 19 जनवरी, इतिहास के पन्नों में यह तारीख घाटी से कश्मीरी पंडितों के पलायन के दिन के रूप में दर्ज है। 90 के दशक आज ही के दिन ठीक 27 साल पहले कश्मीर से पंडितों का विस्थापन शुरू हुआ था। जेहादी कट्टरपंथियों के जुल्म ने उन्हें घर छोडऩे को मजबूर कर दिया। 27 साल पहले की उस डरावनी रात को सोचकर आज भी कश्मीर पंडित सिरह उठते है।
वर्ष 1985 के बाद से कश्मीर पंडितों को कट्टरपंथियों और आतंकवादियों से लगातार धमकियां मिलने लगी। आखिरकार 19 जनवरी 1990 को कट्टरपंथियों ने 4 लाख कश्मीरी पंडितों को उनके घरों से भागने के लिए मजबूर कर दिया। कश्मीर से भागे सैंकड़ों पंडितों ने फरीदाबाद में शहर ली। सेक्टर दो, तीन, 55, 37, 14, 15 में ऐसे 12 सौ से ज्यादा परिवार है, जो आज भी 1990 के मंजर को याद कर सिहर उठते है। सौपोर कस्बे में स्टेश्नरी और सेबों के थोक विक्रेता रहे पंडिता परिवार अब एक कमरे का मकान रहते है। जबकि कस्बे में उनका 30 एकड़ जमीन में सेब के बागान थे, चार मंजिला मकान थे, किराएदार थे। लेकिन आंतकवादियों ने सब बर्बाद कर दिया। बताया कि जब आंतकवादियों ने हमला किया तो घर का दरवाजा नहीं खुला। छह महीने के बेटे अमित और उसकी मां पिंकी तो जमीन के नीचे तहखाने में छुपाया। उस रात रिश्तेदार कन्हैयालाल को गोली मारकर मौत के घाट उतार दिया। सेक्टर तीन में बंसीलाल और कृष्णा कौल अपने भरपूर परिवार के साथ रैनाबारी में रहते थे। 1990 में चरमपंथियों ने ऐसा तनाव पैदा किया कि पड़ोसी भी उनके दुश्मन हो गए। बड़े भाई मोतीलाल कौल को छह गोली मारकर हत्या करने का प्रयास किया। लेकिन वे बच गए। धमकी दी गई कि पूरा परिवार कश्मीर छोड़ दे। दस दिनों के भीतर ही परिवार को कश्मीर घाटी छोडऩी पड़ी। घर-बार, सामान सब पीछे छूट गया। दो कपड़ों में बिना चप्पल पहने ही कौल परिवार ने रात के घने अंधेरे में घर छोड़ दिया। जैसे-तैसे जम्मू पहुंचे, जहां से एक फौजी की मदद से शहर आ गए। इसके बाद कभी कश्मीर जाने की हिम्मत नहीं जूटा पाएं।
रूआसें कृष्णा ने बताया कि कपड़े खरीदने के लिए उसने अखबार बेचा। उन्हें बेचकर तीसरा कपड़ा खरीदा। कहने लगी, जब बच्चियों की इज्जत लूटने की बात सुनी, तो जमीन पैरों के नीचे से खिसक गई। डिंगबर कौल यूथ फॉर पनून कश्मीर के सह-संयोजक है। वे कहते है कि 27 साल बाद आज भी इन्हें याद है कि किस तरह उन्हें अपने ही घर से निकाल दिया गया था। इनकी आंखों के सामने ही लोगों को जिंदा जला दिया गया था।
परेशानी यह सता रही है कि उन्होंने तो जैसे-तैसे अपनी उम्र काट ली लेकिन अब उनके बच्चों का क्या होगा? कश्मीर से विस्थापित हो चुके पंडित हर साल ''विस्थापना दिवस'' मनाते है। 27 साल बाद कश्मीर पंडित अपने आपको ठगा महसूस कर रहे है। शिकायत है कि सरकारें, मानवाधिकार के ठेकेदार उन्होंने क्यों भूल गए।
(लेखक अमर उजाला समाचार पत्र में वरिष्ठ संवाददाता है)
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