नये भारत का मतलब
अगर कोई छोटा-सा कस्बा कब एक बड़ा शहर बन जाता है? क्या वाकई आकार का कोई महत्व है? भूगोल एक खास तरह की लत का नाम है. चर्बी से आकार बढ़ सकता है, लेकिन जरूरी नहीं कि इससे ताकत में भी इजाफा हो. कुछ मुल्क ऐसे भी हैं, जिनकी आबादी का चौथाई हिस्सा झुग्गी बस्तियों में इसलिए अपना जीवन गुजार देता है, क्योंकि उनमें ज़्यादा शहर बसाने की क्षमता नहीं थी. अमरीका की ताकत न्यूयॉर्क और वॉशिंगटन में नहीं, इस सच्चाई में है कि माइक्रोसॉफ्ट की उत्पत्ति सिएटल में हो सकती है और दुनिया के सॉफ्टवेयर उद्योग को कैलिफोर्निया के एक रेगिस्तान से भी संचालित किया जा सकता है. भारत तब तक कमजोर था, जब तक उसकी ताकत चार परंपरागत महानगरों तक सीमित थी. जब गरीब-गुरबों ने अवास्तविक उम्मीदों के साथ इन शहरी बसाहटों की तरफ बढ़ना शुरू किया तो वे शहर से ज़्यादा जख्म बनकर रह गए.यह तर्कसंगत ही है कि चारों मेट्रो शहरों को उनका आधुनिक स्वरूप देने में अंग्रेजों का अहम योगदान था, जबकि भारत की महान राजधानियां चाहे वह लखनऊ हो या मैसूर, पटना हो या जयपुर, ब्रिटिश राज के दौरान पतन के दौर से गुजर रही थीं. आधुनिक भारत का पुनर्निर्माण आर्थिक और राजनीतिक सत्ता के अपने पुराने केंद्रों के इर्द-गिर्द हो रहा है. जमशेदजी टाटा ने जमशेदपुर के रूप में हमारे सामने एक मिसाल पेश की थी. जवाहरलाल नेहरू ने सरकारी औजारों का इस्तेमाल करते हुए ज़्यादा से ज़्यादा इस्पात शहर बनाए. निजी क्षेत्र की हलचलों की ओर कल्पनाशील कदम बढ़ाने वाले व्यक्ति का नाम था धीरूभाई अंबानी. एक ऐसा आर्थिक साम्राज्य, जिसके इर्द-गिर्द भारतीय अपने नए भविष्य का निर्माण कर सकते थे. भारत का नक्शा अब दर्जनों ऐसी नई बसाहटों से पटा पड़ा है, जिनके कारण श्रमशक्ति का पलायन गैरजरूरी हो जाता है. हमारा आने वाला कल कोच्चि या औरंगाबाद या बाड़मेर जैसे शहरों में है. एक दशक से भी कम समय में बाड़मेर जयपुर को चुनौती देने लगेगा.यही वह भारत है, जो हमारे सामाजिक और आर्थिक इतिहास की शीशे की छतों को छेदता हुआ ऊपर बढ़ा जा रहा है. इसने मार्क्सावाद की धारणा को उलट कर रख दिया है. अमीरों से छीनकर गरीबों में बांटने के बजाय उसने अपनी ही हांडी से मक्खन निकालने की कला सिखाई है.
कमीज को दुरूस्त करते समय हम कॉलर पर ध्यान न दे पाएं, लेकिन इस पद्धति में गड़बड़ियों की गुंजाइश कम है.
वह व्यक्ति की बेहतरी के जज्बे के साथ आगे बढ़ रहा है, लेकिन साथ ही वह यह भी जानता है कि सर्वसाधारण के उत्थान के बिना यह संभव नहीं. वह समाजवादी नहीं है और इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि सामाजिक ढांचे की सबसे निचली पायदान पर बसे लोगों का सवाल आने पर वह उनके प्रति पूरी तरह उदार नहीं हो पाता. उसका ढांचा सामाजिक-लोकतांत्रिक है और वह अमरीका के बजाय यूरोपीय पद्धति के निकट है. वह सकारात्मक तरफदारी को बर्दाश्त करने के लिए तैयार है, फिर चाहे ऐसा करते समय वह लगातार भुनभुनाता ही क्यों न रहे. भुनभुनाना मानवीय हरकत है, लेकिन बर्दाश्त करने की ताकत इस बात से मिलती है कि वह खुद आरक्षण की नीतियों का फायदा उठा चुका है.यही वे भारतीय हैं, जिन्होंने कॉमनवेल्थ खेलों के दौरान पदकों की झड़ी लगा दी. एक किसान अपने कुश्तीबाज बेटे को पदक जीतता देखने के लिए स्टेडियम में इसलिए दाखिल नहीं हो सका, क्योंकि वह बड़े शहर और उसके तौर-तरीकों से नावाकिफ था. यह कहानी दुखद होने के साथ ही चमकीली भी है. वह अभागा बाप जल्द ही इससे उबर जाएगा. उसके बेटे ने उनकी जिंदगी बदलकर रख दी है. हमारे वे एथलीट, जिन्होंने कोई पदक तो नहीं जीता, लेकिन मैदान में मुकाबला करने की तरकीब जरूर सीख ली, किसी स्टेट फैक्टरी मशीन के उत्पाद नहीं थे, जैसा कि चीन में होता है. उन्होंने अपनी इच्छाशक्ति के बूते यह कामयाबी हासिल की है. एक न एक दिन चीन की तमाम उपलब्धियां उन विरोधाभासों के सामने कमजोर साबित हो जाएंगी, जो राज्य-शासित ढांचे में उपजते हैं. मार्क्सो और लेनिन का आदर्शवाद इन विरोधाभासों को उभरने से नहीं रोक सकता. इधर व्यक्तिवादी प्रणाली के कारण भारत की उपलब्धियां अराजकतापूर्ण जरूर हो सकती हैं, लेकिन यही वह ताकत भी है, जो उसे आगे ले जाएगी. चीन अपनी खतरनाक सलवटों पर हर पचास साल में इस्तरी करता है, जबकि हम हर पड़ाव पर यह करते हैं. यह हो सकता है कि कमीज को दुरूस्त करते समय हम कॉलर पर ध्यान न दे पाएं, लेकिन इस पद्धति में गड़बड़ियों की गुंजाइश कम है. यह कोई मूल्य आधारित फैसला नहीं है, यह केवल मौजूदा हकीकत का आकलन है. वृत्तांतकारों को हमेशा पता नहीं होता कि उनका लेखाजोखा कहां जाकर थमेगा, लेकिन तब भी उन्हें अपना काम जारी रखना ही होता है.चीन चाइनीज उत्पादों का निर्माण करता है, जबकि भारत भारतीयों से मिलकर बना है. मैं हमेशा इसमें से दूसरे विकल्प का चयन करना पसंद करूंगा.
कमीज को दुरूस्त करते समय हम कॉलर पर ध्यान न दे पाएं, लेकिन इस पद्धति में गड़बड़ियों की गुंजाइश कम है.
वह व्यक्ति की बेहतरी के जज्बे के साथ आगे बढ़ रहा है, लेकिन साथ ही वह यह भी जानता है कि सर्वसाधारण के उत्थान के बिना यह संभव नहीं. वह समाजवादी नहीं है और इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि सामाजिक ढांचे की सबसे निचली पायदान पर बसे लोगों का सवाल आने पर वह उनके प्रति पूरी तरह उदार नहीं हो पाता. उसका ढांचा सामाजिक-लोकतांत्रिक है और वह अमरीका के बजाय यूरोपीय पद्धति के निकट है. वह सकारात्मक तरफदारी को बर्दाश्त करने के लिए तैयार है, फिर चाहे ऐसा करते समय वह लगातार भुनभुनाता ही क्यों न रहे. भुनभुनाना मानवीय हरकत है, लेकिन बर्दाश्त करने की ताकत इस बात से मिलती है कि वह खुद आरक्षण की नीतियों का फायदा उठा चुका है.यही वे भारतीय हैं, जिन्होंने कॉमनवेल्थ खेलों के दौरान पदकों की झड़ी लगा दी. एक किसान अपने कुश्तीबाज बेटे को पदक जीतता देखने के लिए स्टेडियम में इसलिए दाखिल नहीं हो सका, क्योंकि वह बड़े शहर और उसके तौर-तरीकों से नावाकिफ था. यह कहानी दुखद होने के साथ ही चमकीली भी है. वह अभागा बाप जल्द ही इससे उबर जाएगा. उसके बेटे ने उनकी जिंदगी बदलकर रख दी है. हमारे वे एथलीट, जिन्होंने कोई पदक तो नहीं जीता, लेकिन मैदान में मुकाबला करने की तरकीब जरूर सीख ली, किसी स्टेट फैक्टरी मशीन के उत्पाद नहीं थे, जैसा कि चीन में होता है. उन्होंने अपनी इच्छाशक्ति के बूते यह कामयाबी हासिल की है. एक न एक दिन चीन की तमाम उपलब्धियां उन विरोधाभासों के सामने कमजोर साबित हो जाएंगी, जो राज्य-शासित ढांचे में उपजते हैं. मार्क्सो और लेनिन का आदर्शवाद इन विरोधाभासों को उभरने से नहीं रोक सकता. इधर व्यक्तिवादी प्रणाली के कारण भारत की उपलब्धियां अराजकतापूर्ण जरूर हो सकती हैं, लेकिन यही वह ताकत भी है, जो उसे आगे ले जाएगी. चीन अपनी खतरनाक सलवटों पर हर पचास साल में इस्तरी करता है, जबकि हम हर पड़ाव पर यह करते हैं. यह हो सकता है कि कमीज को दुरूस्त करते समय हम कॉलर पर ध्यान न दे पाएं, लेकिन इस पद्धति में गड़बड़ियों की गुंजाइश कम है. यह कोई मूल्य आधारित फैसला नहीं है, यह केवल मौजूदा हकीकत का आकलन है. वृत्तांतकारों को हमेशा पता नहीं होता कि उनका लेखाजोखा कहां जाकर थमेगा, लेकिन तब भी उन्हें अपना काम जारी रखना ही होता है.चीन चाइनीज उत्पादों का निर्माण करता है, जबकि भारत भारतीयों से मिलकर बना है. मैं हमेशा इसमें से दूसरे विकल्प का चयन करना पसंद करूंगा.
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