राष्ट्रीय पुर्ननिर्माण में जूटा विद्यार्थी परिषद् और उसकी जरूरत
राष्ट्रवादी छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के 65वें स्थापना दिवस (9 जुलाई, 2०13) पर आहुत लेख।
राष्ट्रीय पुर्ननिर्माण में जूटा विद्यार्थी परिषद् और उसकी जरूरत
सरिता वशिष्ठ
भारतीय इतिहास युवाओं के लिए सदा प्रेरणादायी रहा है और रहेगा। प्रथम स्वातं`य समर 1857 की बात हो या आजादी की लड़ाई, हर मोर्चे पर युवाओं ने सीना चौड़ा कर दुश्वमनों के दांत खट्टे किए है। इन आन्दोलन में युवा-छात्रों की प्रमुख भूमिका रही है, इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता। महात्मा गांधी कÞ आह्वान पर लाखों छात्र अंग्रेजी सरकार द्बारा स्थापित स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों को छोड़कर अनंत क्षेत्र में उतर आए थे। अंग्रेजी सरकार ने उन्हें उनकÞ कैरियर की दुहाई दी। लेकिन छात्र वर्ग हर दुहाई को ढकोर मार आजादी की जंग में कूद पड़ा। युवा पीढी को मूल मुद्दों से हटाने कÞ लिए कैरियर का लालच देकर खड़ा करने वाली साम्राज्यवादी सरकारें उखड़ गई। जिसे ऐसा माना जाता है कि भारतीय इतिहास को युवा- छात्र आंदोलन की सदा आश्वयकता रही है। इसलिए देश में राष्ट्रीय प्रश्नों पर खड़ा छात्र आंदोलन का इतिहास बहुत पूराना रहा है।
15 अगस्त, 1947 को अंग्रेजों की दसता से भारत को मुक्ति मिली। देश में आजादी की लड़ाई लड़ने वाले कुछ लोगों में सत्ता की भूख भी बढ़ गई। सो आजादी की रात को कहा गया कि देश आजाद हो गया है, इसलिए अब इसके निर्माण का जिम्मा उनका होगा, सभी लोग थक गए है, अत: वे सो जाएंगे। ऐसे अदूरर्शी राजनेताओं को आजादी के बाद किए जाने वाले राष्ट्रीय पुर्ननिर्माण की परिकल्पना भी नहीं है। इसलिए उन्होंने देश के नौजवानों को भटकाने में एक शब्द बाण छोड़ा। लेकिन देश के दूसरे कोने में अंबाला स्थित डीएवी कॉलेज में एक समुह छात्रों को राष्ट्रीय पुर्ननिर्माण के कार्य में लगाने पर गहन मंथन में जूटा हुआ था। इस सागर मंथन में एक नाम सामने आया अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद्
कैरियर के साथ देश हित भी
अंग्रेजों कÞ चले जाने कÞ बाद छात्र आन्दोलन की दिशा क्या हो, किस उद्देश्य को लेकर अब छात्र काम करेगा। क्या कैरियर के साथ छात्रों की जिम्मेदारी खत्म हो जाएंगी। निरंकुश सत्ता पर क्या छात्र लगाम लगा सकेगा। ऐसे हजारों प्रश्न उस समय के देशभक्त लोगों के जहन में उठें। जिनकÞ हाथ में सत्ता आई उनको लगता था कि अब सब उद्देश्य पूरे हो गए है, इसलिए छात्र आन्दोलन की कोई आवश्यकता ही नहीं है। इसलिए अब छात्रों को अपने कैरियर की ओर ही ध्यान देना चाहिए। प्रसिद्ध चिंतक आचार्य नरेन्द्ग देव ने उस लिखा कि सत्ता प्रा’ि के बाद कोई राजनैतिक दल छात्र आंदोलन या उन सभी संघर्षशील तत्वों को समा’ करने का प्रयास करता है, जिन्होंने उसकी सत्ता प्रा’ि में सहायता की हो। तभी तो आजादी से पहले जो लोग छात्रों को कैरियर से बड़ा देश समझाने में जूटे हुए थ्ो। आजादी मिलने के बाद उन्हें ही छात्र आन्दोलन बेमाइने लगने लगा।
राजनीतिक दल का भौंपू बचाने वाला नहीं
ऐसे वातावरण में स्वतंत्रता संग्राम कÞ छात्र आन्दोलन की विरासत को सहेजते हुए 9 जुलाई, 1949 में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् का गठन हुआ। इस गठन की आवश्यकता शायद इसलिए भी अनुभव की जाने लगी थी। क्योंकि स्वतंत्रता आन्दोलन की छात्र विरासत पर कौओं और चीलों की तरह राजनीतिक दल झपट रहे थे और उसे बदरंग करने का प्रयास भी कर रहे थे। विद्यार्थी परिषद किसी राजनीतिक दल का ना उपांग था और न उसकÞ लिए भौंपू बजाने वाला उसका हस्तक। शायद ये ही कारण था कि शुरू-शुरू में विद्यार्थी आन्दोलन को राजनीतिक दलों को चश्में से देखने वाले लोगों को विद्यार्थी परिषद की प्रकृति और स्वभाव समझने में कठिनाई हुई।
तोड़ा भ्रम, छात्र हित सर्वोपरी
शुरूआत में विद्यार्थी परिषद को उस समय कÞ जनसंघ का छात्र मोर्चा ताना शुरू कर दिया लेकिन उनका यह भ्रम तब टूटा जब 1967 में जनसंघ की अनेक राज्यों में सत्ता में भागीदारी की और अनेक मुद्दों पर विद्यार्थी परिषद् ने उन सरकारों का विरोध किया। जो छात्र संगठन राजनीतिक दलों से जुड़े होते है। उनकÞ लिए इस प्रकार का विरोध करना संभव नहीं होता। 1967 में पूरे भारत में शिक्षा क्षेत्र में भारतीय भाषाओं की महत्ता को स्थापित करने कÞ लिए जो बहुत बड़ा आन्दोलन चला। उसका श्रीगणेश विद्यार्थी परिषद ने ही किया था। विद्यार्थी परिषद को इसका श्रेय जाता है कि उस कालखण्ड में उसकÞ आन्दोलन कÞ कारण अधिकांश विश्वविद्यालयों में शिक्षा और परीक्षा का माध्यम भारतीय भाषाओं को स्वीकार किया गया। इस आन्दोलन कÞ कारण समाज का वह वर्ग भी आगे बढ़ने लगा, जो शिक्षा में अंग्रेजी माध्यम की अनिवार्यता कÞ कारण अभी तक पीछे छूट जाता था। यह भारतीय शिक्षा कÞ इतिहास की युगान्तरकारी घटना थी और इसका श्रेय बहुत सीमा तक विद्यार्थी परिषद को ही जाता है। यहां यह दोहराने की आवश्यकता नहीं है कि जब गुजरात में नव निर्माण आन्दोलन भड़का और प्रदेश का छात्र हर क्षेत्र में व्यापक सडांध को दूर करने कÞ लिए उठ खडा हुआ तो उसमें प्रमुख भूमिका विद्यार्थी परिषद् की रही।
सम्रग क्रांति को पहुंचाया जन-जन में
1974 में जय प्रकाश नारायण ने समग्र क्रांति का बिगुल बजाया तो उनकÞ इस संदेश को देश कÞ जन-जन तक पहुंचाने का महत्वपूर्ण कार्य अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् ने ही किया। जयप्रकाश नारायण स्वयं मानते थे कि उनका समग्रप्रांती आन्दोलन विद्यार्थी परिषद कÞ बिना आगे नहीं बढ़ सकता था। इस आन्दोलन को कुचलने कÞ लिए जब सत्तााधारियों ने भारतीय संविधान को ताक पर रखकर तानाशाही साम्राज्य स्थापित करने और बहुत से तथाकथित क्रांतिकारी सत्तााधीशों की चाटुकारिता में जुट गए और सत्तााधीशों से जुड़े हुए छात्र संगठन बहरे और गूंगे हो गए। तब विद्यार्थी परिषद ने अन्य राष्ट्रवादियों की शक्तियों कÞ साथ मिलकर इस तानाशाही संरचना को उसी प्रकार चुनौती दी थी जिस प्रकार कभी अंग्रेज शासकों कÞ वक्त में देश की छात्र शक्ति ने अंग्रेजों को चुनौती दी थी। विद्यार्थी परिषद कÞ हजारों कार्यकताã तानाशाही साम्राज्य की जेलों में गए।
सत्ता परिवर्तन नहीं, समाज परिवर्तन लक्ष्य
विद्यार्थी परिषद की पहचान और प्रकृति की सबसे बड़ी परीक्षा तब हुई जब 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनीं और भारतीय जनसंघ का उसमें विलय हो गया। जनता पार्टी में जो अन्य दल शामिल हुए थे उनमें प्रमुख कांग्रेस का एक रूप और विभिन्न समाजवादियां पार्टियां थीं। जनता पार्टी ने इस बात की जिद्द की कि विद्यार्थी परिषदè को भंग कर दिया जाए और उसकÞ कार्यकताã अपने आप को जनता पार्टी कÞ आधिकारिक छात्र संगठन का हिस्सा घोषित करें। पूर्ववतीã जनसंघ कÞ भी कुछ लोग इसकÞ पक्ष में थे परन्तु विद्यार्थी परिषद ने इससे स्पष्ट अस्वीकार कर दिया और अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाए रखा, यह विद्यार्थी परिषद का असली और स्वतंत्र पहचान का स्पष्ट संकÞत था। विद्यार्थी परिषद ने जब भारतीय जनता पार्टी द्बारा भी कुछ जगह प्राईवेट विश्वविद्यालयों और शिक्षा कÞ निजीकरण को प्रोत्साहित किए जाने की जोरदार विरोध नहीं नहीं किया बल्कि इस मुद्दे पर जन आन्दोलन खडा कर दिया तब अनेक तथस्थ विश्लेषकों ने भी स्वीकार करना शुरू कर दिया कि विद्यार्थी परिषद राष्ट्र कÞ पुनर्निर्माण को समर्पित स्वतंत्र छात्र संगठन है।
चुनौतियों और भी है
आज इस छात्र संगठन को कार्य करते हुए 65 साल पूरे हो गए हैं। दुर्भाग्य से भारत का इतिहास फिर संक्रमण काल कÞ चौराहे पर आ खड़ा हुआ है। विदेशी शक्तियां भारत को घेरने का ही प्रयास ही नहीं, बल्कि नीति निर्माण कÞ क्षेत्र में उन्होंने भारत कÞ भीतर कहीं गहरे तक घुसपैठ कर ली है। यही कारण है कि पिछले कुछ वषोर्ं से सत्ताधारी गुट इस प्रकार कÞ निर्णय ले रहे हैं जिससे भारत अमेरिका का बंधक देश बनता जा रहा है। देश की सुरक्षा का प्रश्न हो या 2जी घोटाले या केंद्र में बैठी निरंकुश सरकार। युवा और छात्र पीढ़ी ऐसे षड़यंत्रों की जानकारी न हो, इसके लिए प्रयास किया जा रहा है कि शिक्षा को भी विदेशी ताकतों को सौंप दिया जाए। अंग्रेजो की कूटिल चाल को अब विदेशी शक्तियों कुछ भारतीय के साथ मिलकर चल रही है ताकि अंंतत: छात्र शक्ति की धार को कुंठित हो जाएं। जिसे इन स्वार्थी तत्वों को चुनौती देने वाला कोई नहीं बचे। राष्ट्र की पहचान बदलने का विदेशी खेल खुलकर खेला जा सकÞगा। इसलिए इस भीषण कठिन परिस्थितियों में छात्रों और विद्यार्थी परिषद् की भूमिका और ज्यादा प्रभावी करने की जरूरत महसूस हो रही है। इसलिए कहना होगा विद्यार्थी परिषद ने अपनी यात्रा कÞ 64 साल पूरे कर लिए है, लेकिन इस पड़ाव पर उसकÞ आगे चुनौतियां और भी सतत रहेगी।
लेखिका सशक्त युवा फाउंडेशन की चेयरमैन है।
राष्ट्रीय पुर्ननिर्माण में जूटा विद्यार्थी परिषद् और उसकी जरूरत
सरिता वशिष्ठ
भारतीय इतिहास युवाओं के लिए सदा प्रेरणादायी रहा है और रहेगा। प्रथम स्वातं`य समर 1857 की बात हो या आजादी की लड़ाई, हर मोर्चे पर युवाओं ने सीना चौड़ा कर दुश्वमनों के दांत खट्टे किए है। इन आन्दोलन में युवा-छात्रों की प्रमुख भूमिका रही है, इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता। महात्मा गांधी कÞ आह्वान पर लाखों छात्र अंग्रेजी सरकार द्बारा स्थापित स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों को छोड़कर अनंत क्षेत्र में उतर आए थे। अंग्रेजी सरकार ने उन्हें उनकÞ कैरियर की दुहाई दी। लेकिन छात्र वर्ग हर दुहाई को ढकोर मार आजादी की जंग में कूद पड़ा। युवा पीढी को मूल मुद्दों से हटाने कÞ लिए कैरियर का लालच देकर खड़ा करने वाली साम्राज्यवादी सरकारें उखड़ गई। जिसे ऐसा माना जाता है कि भारतीय इतिहास को युवा- छात्र आंदोलन की सदा आश्वयकता रही है। इसलिए देश में राष्ट्रीय प्रश्नों पर खड़ा छात्र आंदोलन का इतिहास बहुत पूराना रहा है।
15 अगस्त, 1947 को अंग्रेजों की दसता से भारत को मुक्ति मिली। देश में आजादी की लड़ाई लड़ने वाले कुछ लोगों में सत्ता की भूख भी बढ़ गई। सो आजादी की रात को कहा गया कि देश आजाद हो गया है, इसलिए अब इसके निर्माण का जिम्मा उनका होगा, सभी लोग थक गए है, अत: वे सो जाएंगे। ऐसे अदूरर्शी राजनेताओं को आजादी के बाद किए जाने वाले राष्ट्रीय पुर्ननिर्माण की परिकल्पना भी नहीं है। इसलिए उन्होंने देश के नौजवानों को भटकाने में एक शब्द बाण छोड़ा। लेकिन देश के दूसरे कोने में अंबाला स्थित डीएवी कॉलेज में एक समुह छात्रों को राष्ट्रीय पुर्ननिर्माण के कार्य में लगाने पर गहन मंथन में जूटा हुआ था। इस सागर मंथन में एक नाम सामने आया अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद्
कैरियर के साथ देश हित भी
अंग्रेजों कÞ चले जाने कÞ बाद छात्र आन्दोलन की दिशा क्या हो, किस उद्देश्य को लेकर अब छात्र काम करेगा। क्या कैरियर के साथ छात्रों की जिम्मेदारी खत्म हो जाएंगी। निरंकुश सत्ता पर क्या छात्र लगाम लगा सकेगा। ऐसे हजारों प्रश्न उस समय के देशभक्त लोगों के जहन में उठें। जिनकÞ हाथ में सत्ता आई उनको लगता था कि अब सब उद्देश्य पूरे हो गए है, इसलिए छात्र आन्दोलन की कोई आवश्यकता ही नहीं है। इसलिए अब छात्रों को अपने कैरियर की ओर ही ध्यान देना चाहिए। प्रसिद्ध चिंतक आचार्य नरेन्द्ग देव ने उस लिखा कि सत्ता प्रा’ि के बाद कोई राजनैतिक दल छात्र आंदोलन या उन सभी संघर्षशील तत्वों को समा’ करने का प्रयास करता है, जिन्होंने उसकी सत्ता प्रा’ि में सहायता की हो। तभी तो आजादी से पहले जो लोग छात्रों को कैरियर से बड़ा देश समझाने में जूटे हुए थ्ो। आजादी मिलने के बाद उन्हें ही छात्र आन्दोलन बेमाइने लगने लगा।
राजनीतिक दल का भौंपू बचाने वाला नहीं
ऐसे वातावरण में स्वतंत्रता संग्राम कÞ छात्र आन्दोलन की विरासत को सहेजते हुए 9 जुलाई, 1949 में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् का गठन हुआ। इस गठन की आवश्यकता शायद इसलिए भी अनुभव की जाने लगी थी। क्योंकि स्वतंत्रता आन्दोलन की छात्र विरासत पर कौओं और चीलों की तरह राजनीतिक दल झपट रहे थे और उसे बदरंग करने का प्रयास भी कर रहे थे। विद्यार्थी परिषद किसी राजनीतिक दल का ना उपांग था और न उसकÞ लिए भौंपू बजाने वाला उसका हस्तक। शायद ये ही कारण था कि शुरू-शुरू में विद्यार्थी आन्दोलन को राजनीतिक दलों को चश्में से देखने वाले लोगों को विद्यार्थी परिषद की प्रकृति और स्वभाव समझने में कठिनाई हुई।
तोड़ा भ्रम, छात्र हित सर्वोपरी
शुरूआत में विद्यार्थी परिषद को उस समय कÞ जनसंघ का छात्र मोर्चा ताना शुरू कर दिया लेकिन उनका यह भ्रम तब टूटा जब 1967 में जनसंघ की अनेक राज्यों में सत्ता में भागीदारी की और अनेक मुद्दों पर विद्यार्थी परिषद् ने उन सरकारों का विरोध किया। जो छात्र संगठन राजनीतिक दलों से जुड़े होते है। उनकÞ लिए इस प्रकार का विरोध करना संभव नहीं होता। 1967 में पूरे भारत में शिक्षा क्षेत्र में भारतीय भाषाओं की महत्ता को स्थापित करने कÞ लिए जो बहुत बड़ा आन्दोलन चला। उसका श्रीगणेश विद्यार्थी परिषद ने ही किया था। विद्यार्थी परिषद को इसका श्रेय जाता है कि उस कालखण्ड में उसकÞ आन्दोलन कÞ कारण अधिकांश विश्वविद्यालयों में शिक्षा और परीक्षा का माध्यम भारतीय भाषाओं को स्वीकार किया गया। इस आन्दोलन कÞ कारण समाज का वह वर्ग भी आगे बढ़ने लगा, जो शिक्षा में अंग्रेजी माध्यम की अनिवार्यता कÞ कारण अभी तक पीछे छूट जाता था। यह भारतीय शिक्षा कÞ इतिहास की युगान्तरकारी घटना थी और इसका श्रेय बहुत सीमा तक विद्यार्थी परिषद को ही जाता है। यहां यह दोहराने की आवश्यकता नहीं है कि जब गुजरात में नव निर्माण आन्दोलन भड़का और प्रदेश का छात्र हर क्षेत्र में व्यापक सडांध को दूर करने कÞ लिए उठ खडा हुआ तो उसमें प्रमुख भूमिका विद्यार्थी परिषद् की रही।
सम्रग क्रांति को पहुंचाया जन-जन में
1974 में जय प्रकाश नारायण ने समग्र क्रांति का बिगुल बजाया तो उनकÞ इस संदेश को देश कÞ जन-जन तक पहुंचाने का महत्वपूर्ण कार्य अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् ने ही किया। जयप्रकाश नारायण स्वयं मानते थे कि उनका समग्रप्रांती आन्दोलन विद्यार्थी परिषद कÞ बिना आगे नहीं बढ़ सकता था। इस आन्दोलन को कुचलने कÞ लिए जब सत्तााधारियों ने भारतीय संविधान को ताक पर रखकर तानाशाही साम्राज्य स्थापित करने और बहुत से तथाकथित क्रांतिकारी सत्तााधीशों की चाटुकारिता में जुट गए और सत्तााधीशों से जुड़े हुए छात्र संगठन बहरे और गूंगे हो गए। तब विद्यार्थी परिषद ने अन्य राष्ट्रवादियों की शक्तियों कÞ साथ मिलकर इस तानाशाही संरचना को उसी प्रकार चुनौती दी थी जिस प्रकार कभी अंग्रेज शासकों कÞ वक्त में देश की छात्र शक्ति ने अंग्रेजों को चुनौती दी थी। विद्यार्थी परिषद कÞ हजारों कार्यकताã तानाशाही साम्राज्य की जेलों में गए।
सत्ता परिवर्तन नहीं, समाज परिवर्तन लक्ष्य
विद्यार्थी परिषद की पहचान और प्रकृति की सबसे बड़ी परीक्षा तब हुई जब 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनीं और भारतीय जनसंघ का उसमें विलय हो गया। जनता पार्टी में जो अन्य दल शामिल हुए थे उनमें प्रमुख कांग्रेस का एक रूप और विभिन्न समाजवादियां पार्टियां थीं। जनता पार्टी ने इस बात की जिद्द की कि विद्यार्थी परिषदè को भंग कर दिया जाए और उसकÞ कार्यकताã अपने आप को जनता पार्टी कÞ आधिकारिक छात्र संगठन का हिस्सा घोषित करें। पूर्ववतीã जनसंघ कÞ भी कुछ लोग इसकÞ पक्ष में थे परन्तु विद्यार्थी परिषद ने इससे स्पष्ट अस्वीकार कर दिया और अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाए रखा, यह विद्यार्थी परिषद का असली और स्वतंत्र पहचान का स्पष्ट संकÞत था। विद्यार्थी परिषद ने जब भारतीय जनता पार्टी द्बारा भी कुछ जगह प्राईवेट विश्वविद्यालयों और शिक्षा कÞ निजीकरण को प्रोत्साहित किए जाने की जोरदार विरोध नहीं नहीं किया बल्कि इस मुद्दे पर जन आन्दोलन खडा कर दिया तब अनेक तथस्थ विश्लेषकों ने भी स्वीकार करना शुरू कर दिया कि विद्यार्थी परिषद राष्ट्र कÞ पुनर्निर्माण को समर्पित स्वतंत्र छात्र संगठन है।
चुनौतियों और भी है
आज इस छात्र संगठन को कार्य करते हुए 65 साल पूरे हो गए हैं। दुर्भाग्य से भारत का इतिहास फिर संक्रमण काल कÞ चौराहे पर आ खड़ा हुआ है। विदेशी शक्तियां भारत को घेरने का ही प्रयास ही नहीं, बल्कि नीति निर्माण कÞ क्षेत्र में उन्होंने भारत कÞ भीतर कहीं गहरे तक घुसपैठ कर ली है। यही कारण है कि पिछले कुछ वषोर्ं से सत्ताधारी गुट इस प्रकार कÞ निर्णय ले रहे हैं जिससे भारत अमेरिका का बंधक देश बनता जा रहा है। देश की सुरक्षा का प्रश्न हो या 2जी घोटाले या केंद्र में बैठी निरंकुश सरकार। युवा और छात्र पीढ़ी ऐसे षड़यंत्रों की जानकारी न हो, इसके लिए प्रयास किया जा रहा है कि शिक्षा को भी विदेशी ताकतों को सौंप दिया जाए। अंग्रेजो की कूटिल चाल को अब विदेशी शक्तियों कुछ भारतीय के साथ मिलकर चल रही है ताकि अंंतत: छात्र शक्ति की धार को कुंठित हो जाएं। जिसे इन स्वार्थी तत्वों को चुनौती देने वाला कोई नहीं बचे। राष्ट्र की पहचान बदलने का विदेशी खेल खुलकर खेला जा सकÞगा। इसलिए इस भीषण कठिन परिस्थितियों में छात्रों और विद्यार्थी परिषद् की भूमिका और ज्यादा प्रभावी करने की जरूरत महसूस हो रही है। इसलिए कहना होगा विद्यार्थी परिषद ने अपनी यात्रा कÞ 64 साल पूरे कर लिए है, लेकिन इस पड़ाव पर उसकÞ आगे चुनौतियां और भी सतत रहेगी।
लेखिका सशक्त युवा फाउंडेशन की चेयरमैन है।
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