नया नहीं है राष्ट्रद्रोह का यह खेल
मुकेश शर्मा, दिल्ली विश्वविद्यालय में जारी राष्ट्रवाद बनाम राष्ट्रद्रोह में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद्(एबीवीपी) ने सिद्ध कर दिया कि वह कैंपस में देशद्रोही नारों को बर्दाश्त नहीं करेगी। यह सही भी है। क्योंकि अभिव्यक्ति के नाम पर देश के खिलाफ कुछ भी कहने की इजाजत नहीं होनी चाहिए।
मेरा मानना है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिए जरूरी भी है। लेकिन संसद पर हुए आतंकी हमले के दोषी अफजल गुरु की बरसी मनाकर उसे शहीद बताना और भारत विरोधी नारे लगे जैसी हरकतों को देश हित में नहीं कहा जा सकता है। 2014 में आई राष्ट्रवादी भाजपा सरकार के बाद इन सपोलों का दम घुटने लगा है। इसलिए छटपटाते हुए ये इधर-उधर हाथ-पैर मारकर अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे है। इससे पहले भी ये पथभ्रष्ट छात्र कई बार देश विरोधी गतिविरोधी गतिविधियों में पैरवी करते नजर आए।
चाहे फिदायीन इशरत जहां का मामला हो या संसद हमले के जिम्मेदार अफजल गुरू का मामला हो या मुंबई हमलों के लिए जिम्मेदार याकूब मेमन की फांसी का सवाल हो। मुझे समझ नहीं आता कि जब कभी चीन की फौज विवादित क्षेत्र से भारत में घुस आती है या पाकिस्तान की सेना सीमा पार से हमारे जवानों पर हमला करती है तो इनकी आवाज देश हित में क्यों नहीं उठता। देखने के बाद यह साफ समझा जा सकता है कि इसका उद्देश्य या तो भारतीय संस्कृति और भारतीय संविधान को नीचा दिखाना है या फिर सस्ती लोकप्रियता हासिल करना है।
शैक्षणिक परिसर में इन आयोजनों को देखते हुए जेएनयू पर देशविरोधी गतिविधियों को लेकर उठने वाली चिंता वाजिब ही है।
-वर्ष 2000 में करगिल में युद्घ लडऩे वाले वीर सैनिकों को अपमानित कर यहां चल रहे मुशायरे में भारत निंदा का समर्थन किया।
-26 जनवरी, 2015 को इंटरनेशनल फूड फेस्टिवल के बहाने कश्मीर को अलग देश दिखाकर उसका स्टाल लगाया गया।
-जब नवरात्रि के दौरान पूरा देश देवी दुर्गा की आराधना कर रहा था, उसी वक्त जेएनयू में दुर्गा का अपमान करने वाले पर्चे, पोस्टर जारी कर न सिर्फ अशांति फैलाई गई बल्कि महिषासुर को महिमामंडित कर महिषासुर शहादत दिवस का आयोजन किया गया।
-24 अक्टूरबर 2011 को भी कावेरी छात्रावास में लार्ड मैकाले और महिषासुर एक पुनर्पाठ विषय पर सेमिनार में दुर्गा के सम्बन्ध में अपमानजनक टिप्पणियों से मारपीट की भी नौबत आ गई थी।
-यही नहीं जेएनयू छात्रों ने गौमांस फेस्टिवल मनाने की जिद पर अड़े इन संगठनों को दिल्ली उच्च न्यायालय रोक लगाई।
-सबसे हैरत की बात है कि जब 10 अप्रैल 2010 को जब पूरा देश छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में नक्सलिओं के गोलियों से शहीद हुए 76 जवानों के गम में गमगीन था। उसी समय जेएनयू में जश्न मनाया जा रहा थे।
-यही नहीं उसका विरोध करने पर माओवादियों-नक्सलवादियों के प्रति सहानुभूति रखने वाले छात्रों ने उन पर हमला किया गया जिसमें में कई छात्र बुरी तरह घायल हो गए थे।
-छत्तीसगढ़, झारखण्ड सहित कुछ राज्यों के नक्सल प्रभावित इलाकों में सुरक्षा बलों द्वारा चलाए गए ऑपरेशन ग्रीन हंट नामक अभियान का विरोध जेएनयू छात्रों ने पर्चे और पब्लिक मीटिंग के जरिए की।
-जब नवंबर 2005 में मनमोहन सिंह के भाषण में छात्रों ने नारेबाजी की और पर्चे फेंके तो भी इनके सहिष्णुताष् पर सवाल उठाए गए थे। हंगामा इस कदर मचा था कि बीच बचाव के लिए पुलिस को आगे आना पड़ा।
-अगस्त 2008 में जब विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज विभाग में अमेरिका के अतिरिक्त सचिव रिचर्ड बाउचर को भारत-अमेरिका परमाणु समझौते के संबंध में बोलना शुरू किया तो लाल झण्डा उठाकर छात्रों ने अमेरिका हाय-हाय परमाणु समझौता रद्द करो, जैसे नारे लगाते हुए एस कदर हंगामा मचाया कि अंत में कार्यक्रम को ही स्थगित करना पड़ा और रिचर्ड बाउचर भी अपनी बात नहीं रख पाए थे।
-5 मार्च 2011 को आयोजित एक सेमिनार जिसमें अरुंधती राय ने भाग लिया था, उसमें न सिर्फ भारत सरकार और संविधान के विरोध में नारे लगाए गए थे बल्कि बांटे गए पर्चे में जूते के तले राष्ट्रीय चिन्ह को दिखाया गया।
-30 मार्च, 2011 और 2015 में को भारत-पाकिस्तान के बीच क्रिकेट विश्वकप के मैच में पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगाए गए और भारत का समर्थन कर रहे छात्रों पर हमले किये गए।
-24 अगस्त 2011 को अन्ना आंदोलन के समय तिरंगे को फाड़कर पैरों से रौंदा भी गया। विविधता में एकता भारत की सदियों पुरानी पहचान रही है।
-2014 से पहले तक जेएनयू के कैंपस में इजरायल के किसी व्यक्ति यहां तक कि राजदूत तक का घुसना भी प्रतिबंधित हुआ करता था।
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जहां तक वामपंथी विचारधारा की बात है तो न सिर्फ चीन की कम्युनिस्ट पार्टी बल्कि उत्तर कोरिया, वियतनामए क्यूबा, चिली, वेनेजुएला या पूर्व सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टियों के किसी सदस्यों ने कभी देश विरोधी गतिविधियों में लिप्त नहीं पाए गए। लेकिन, वामपंथ के नाम पर देश में चल रहा देशद्रोह अब बर्दाश्त के बाहर है। इसे किसी सूरत में स्वीकार नहीं किया जा सकता।
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आने वाले दिनों में विद्यार्थी परिषद् को इस देशद्रोही मानसिकता से ग्रस्त लोगों से निर्णायक संघर्ष करना पड़ेगा। वैसे तो इनका वैचारिक एवं नैतिक पराजय तो हो चुकी है। लेकिन, अभी भी जेएनयू जैसे संस्थान में दशकों से बुना हुआ इनका मायाजाल कायम है। मुझे विश्वास है कि अपने वैचारिक प्रतिबद्धता, समर्पण एवं आचरण से विद्यार्थी परिषद् ने इस मायाजाल को चीरकर जेएनयू सहित सभी संस्थान पूर्णत: राष्ट्रवाद को समर्पित होंगे।
वंदे मातरम्
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