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Showing posts from May, 2011

ए. पी. जे. अब्दुल कलाम के प्रेरक वचऩ ...

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आपको खुद अपना निमार्ण करना है और जिंदगी को सँवारना है। अदम्य साहस का दूसरा कदम है किसी लक्ष्य या ध्येय का पूरा करने के रास्ते में आने वाली सभी बाधाओं पर विजय पाने की क्षमता। जब कोई अभियान प्रगति पर हो तो हमेशा कुछ-न-कुछ समस्याएँ या असफलताएँ सामने आती ही हैं, किंतु असफलताओं के कारण कार्यक्रम बाधित नहीं होना चाहिए। फूल को देखो-वह कितनी उदारता से अपनी खुशबू और शहद बाँटता है। वह हर किसी को देता है, प्यार बिखेरता है, और जब उसका काम पूरा हो जाता है तो चुपपाच झड़ जाता है। फूल की तरह बनने की कोशिश करो, जिसमें इतनी खूबियों के बावजूद जरा भी घमंड नहीं। सितारों को न छू पाना कोई शर्म की बात नहीं, किंतु सितारों को छू पाने का सपना ही न होना, वाकई ही शर्म की बात है। विज्ञान मानवता को ईश्वर का सबसे बड़ा वरदान है। तर्क आधारित- विज्ञान समाज की पूँजी होता है। विज्ञान और प्रौद्योगिकी के अध्यात्म से जुड़ने पर दोनों का भविष्य टिका हुआ है। प्रतयेक व्यक्ति का जीवन मानव इतिहास का एक पृष्ठ है, चाहे वह किसी भी पद पर आसीन अथवा किसी भी कार्य में संलग्न हो। कुछ कर दिखाने के लिए अपनी सारी प्रतिभा और जिजीविषा से जुटे

जिन्दा हो और हमेशा रहोगे

भारत की आजादी के इतिहास को जिन अमर शहीदों के रक्त से लिखा गया है, जिन शूरवीरों के बलिदान ने भारतीय जन-मानस को सर्वाधिक उद्वेलित किया है, जिन्होंने अपनी रणनीति से साम्राज्यवादियों को लोहे के चने चबवाए हैं, जिन्होंने परतन्त्रता की बेड़ियों को छिन्न-भिन्न कर स्वतंत्रता का मार्ग प्रशस्त किया है तथा जिन पर जन्मभूमि को गर्व है, उनमें से एक हैं — भगतसिंह। भगतसिंह का जन्म 27 सितम्बर, 1907 को पंजाब के जिला लायलपुर में बंगा गांव (पाकिस्तान) में हुआ था । भगतसिंह के पिता सरदार किशन सिंह एवं उनके दो चाचा अजीतसिंह तथा स्वर्णसिंह अंग्रेजी हुकुमत के खिलाफ होने के कारण जेल में बन्द थे । यह एक विचित्र संयोग ही था कि जिस दिन भगतसिंह पैदा हुए उनके पिता एवं चाचा को जेल से रिहा किया गया । इस शुभ घड़ी के अवसर पर भगतसिंह के घर में खुशी और भी बढ गर्ऌ थी । यही सब देखते हुए भगतसिंह की दादी ने बच्चे का नाम भागां वाला (अच्छे भाग्य वाला) रखा । बाद में उन्हें भगतसिंह कहा जाने लगा । एक देशभक्त के परिवार में जन्म लेने के कारण भगतसिंह को देशभक्ति और स्वतंत्रता का पाठ विरासत में पढने क़ो मिल गया था । भगतसिंह जब चार-पांच वर

यूपीए-2 के दो वर्ष: आम आदमी की कीमत पर असफलताओं का जश्‍न

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बेटा लायक हो या नालायक, माता-पिता को तो उसका जन्मदिन मनाना ही होता है। यही हो रहा है आज जब यूपीए-2 अपने कार्यकाल के दो वर्ष पूरे कर अपना तीसरा जन्म दिवस मना रही है। यदि सचमुच कुछ विशेष उपलब्धि सरकार के पास होती तो जश्न मनाना तो स्वाभाविक है। पर इस दिन को मनाना यूपीए की मजबूरी भी है। यदि वह कुछ न करे तो लोग ही कहने लगेंगे कि सरकार और इसके घटक दल तो स्वयं ही मान रहे हैं कि उसके पास उपलब्धि के नाम कुछ नहीं है। हाल ही के पांच राज्य विधान सभा के चुनावों में कांग्रेस को खुशी थोड़ी मिली है और ग़म ज्यादा। बस इज्ज़त बचा ली असम ने, जहां कांग्रेस एक बार फिर अपने दम पर सरकार बनाने में सक्षम हो गई है। केरल में तो डूबती-डूबती नैया बची और उसके खेवनहार कांग्रेसी नहीं मार्क्‍सवादी स्वयं थे जिन्होंने जी-जान लगा दी अपनी ही अच्यूतानन्दन सरकार को हराने में। 140 के सदन में यूडीएफ के पास केवल 72 सदस्य हैं। कांग्रेस के पास केवल 34 सदस्य हैं और ‘सैकुलर’ कांग्रेस अब मुस्लिम लीग और क्रिश्चियन पार्टियों के साम्प्रदायिक एजैण्डे पर चलने में मजबूर होगी। तमिल नाडू में तो डीएमके के साथ कांग्रेस ही लुटिया भी डूब गई। उध

एक छात्र आंदोलन के 60 साल

स्वतंत्रता आन्दोलन में छात्रों की प्रमुख भूमिका रही है, इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता। महात्मा गांधी के आह्वान पर लाखों छात्र अंग्रेजी सरकार द्वारा स्थापित स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों को छोडकर अनंत क्षेत्र में उतर आए थे। अंग्रेजी सरकार ने उन्हें उनके कैरियर की दुहाई दी। हर देश में साम्राज्यवादी सरकारें आम तौर पर युवा पीढी को मूल मुद्दों से हटाने के लिए कैरियर का लालच खडा करती ही है और हर युग में ऐसे लोग भी मिल जाते हैं जो उस लालच में फंस कर मूल मुद्दों को दफनाने का प्रयास करते हैं। इसलिए जहां एक ओर भगत सिंह और चन्द्रशेखर आजाद जैसे विद्यार्थी भारत माता के लिए अपना बलिदान दे रहे थे वहीं दूसरी ओर हजारों की संख्या में कैरियर को मुख्य मुद्दा मानकर अनेक छात्र आईसीएस का विकल्प स्वीकार कर के अपने ही देश के खिलाफ अंग्रेजी मालिकों की सेवा में जुटे हुए थे। यदि इस ह्ष्टि से देखा जाए तो इस देश का छात्र आन्दोलन जो सही अर्थों में राष्ट्रीय प्रश्नों को समर्पित है, बहुत पुराना है। परन्तु अंग्रेजों के चले जाने के बाद छात्र आन्दोलन की दिशा क्या हो, इसको लेकर एक बहस प्रारम्भ हो गयी। जिनके हाथ म

युवाओं के प्रेरणास्रोत स्वामी विवेकानंद

स्वामी विवेकानंद ने भारत में हिन्दू धर्म का पुनरुद्धार तथा विदेशों में सनातन सत्यों का प्रचार किया। इस कारण वे प्राच्य एवं पाश्चात्य देशों में सर्वत्र समान रूप से श्रद्धा एवं सम्मान की दृष्टि से देखे जाते हैं। दुनिया में हिंदू धर्म और भारत की प्रतिष्ठा स्थापित करने वाले स्वामी विवेकानंद एक आध्यात्मिक हस्ती होने के बावजूद अपने नवीन एवं जीवंत विचारों के कारण आज भी युवाओं के प्रेरणास्रोत बने हुए हैं। विवेकानंद जन्म 12 जनवरी 1863 ई., सोमवार के दिन प्रात:काल सूर्योदय के किंचित् काल बाद 6 बजकर 49 मिनट पर हुआ था। मकर संक्रांति का वह दिन हिन्दू जाति के लिए महान उत्सव का अवसर था और भक्तगण उस दिन लाखों की संख्‍या में गंगाजी को पूजा अर्पण करने जा रहे थे। अत: जिस समय भावी विवेकानंद ने इस धरती पर पहली बार साँस ली, उस समय उनके घर के समीप ही प्रवाहमान पुण्यतोया भागीरथी लाखों नर-नारियों की प्रार्थना, पूजन एवं भजन के कलरव से प्रतिध्वनित हो रही थीं। स्वामी विवेकानंद के जन्म के पूर्व, अन्य धर्मप्राण हिन्दू माताओं के समान ही, उनकी माताजी ने भी व्रत-उपवास किए थे तथा एक ऐसी संतान के लिए प्रार्थना की थी, जिस

शायद ज़िंदगी बदल रही है!!

शायद ज़िंदगी बदल रही है!! जब मैं छोटा था, शायद दुनिया बहुत बड़ी हुआ करती थी॥ मुझे याद है मेरे घर से "स्कूल" तक का वो रास्ता, क्या क्या नहीं था वहां, चाट के ठेले, जलेबी की दुकान, बर्फ के गोले, सब कुछ, अब वहां "मोबाइल शॉप", "विडियो पार्लर" हैं, फिर भी सब सूना है.. शायद अब दुनिया सिमट रही है... जब मैं छोटा था, शायद शामें बहुत लम्बी हुआ करती थीं... मैं हाथ में पतंग की डोर पकड़े, घंटों उड़ा करता था, वो लम्बी "साइकिल रेस", वो बचपन के खेल, वो हर शाम थक के चूर हो जाना, अब शाम नहीं होती, दिन ढलता है और सीधे रात हो जाती है। शायद वक्त सिमट रहा है... . . जब मैं छोटा था, शायद दोस्ती बहुत गहरी हुआ करती थी, दिन भर वो हुजूम बनाकर खेलना, वो दोस्तों के घर का खाना, वो लड़कियों की बातें, वो साथ रोना... अब भी मेरे कई दोस्त हैं, पर दोस्ती जाने कहाँ है, जब भी "traffic signal" पे मिलते हैं "Hi" हो जाती है, और अपने अपने रास्ते चल देते हैं, होली, दीवाली, जन्मदिन, नए साल पर बस SMS आ जाते हैं, शायद अब रिश्ते बदल रहें हैं... . जब मैं छोटा था, तब खेल भी अज

उभरते युवा भारत में आपका स्वागत

भारत आज दुनिया के युवतम देशों में गिना जाता है। हमारी करीब आधी आबादी यानी 50 करोड़ से ज्यादा लोग अभी 24 वर्ष से कम उम्र के हैं। देश आज बदला हुआ दिखाई देता है, तो इसी युवा आबादी की बदौलत। युवा दिवस के अवसर पर युवाओं की दुनिया की एक झलक..उसकी उंगलियां मोबाइल फोन के नंबरों पर फटाफट चलती हैं। वह संगीत सुनते हुए या किताब पढ़ते हुए या आपसे बात करते हुए मोबाइल पर टेक्स्ट मेसेज भेज सकता है। फेसबुक पर अपना स्टेटस अपडेट करते हुए एक साथ दस दोस्तों से जी-चैट कर सकता है। वह भी बिल्कुल अलग-अलग विषयों पर। वह थोड़े लापरवाह और थोड़े सधे हुए ढंग से बाइक टिकाता है और आत्मविश्वास भरे कदमों से मंजिल की ओर बढ़ जाता है। वह हर वक्त कुछ जल्दी में दिखाई देता है। उसके चेहरे पर एक किस्म की उत्सुकता है और खुशी भी। आप उसे अक्सर ईयरफोन कानों में लगाए अपनी धुन में खोया हुआ देखेंगे या फिर मोबाइल पर किसी से बात करते हुए। उसकी भाषा आपको कुछ अजीब-सी लग सकती है। उसमें अंग्रेजी और हिंदी के शब्दों का सम्मिश्रण है। बड़े और लंबे शब्दों को तोड़कर उसने छोटा बना लिया है। हिंदुस्तान के युवाओं की रोमांचक दुनिया में आपका स्वागत है।

उभरता युवा

उभरता युवा भारत तेजी से शहरी हो रहा है और साक्षर भी। आइए इसे कुछ आंकड़ों से समझते हैं। इस वक्त देश में 13 से 35 वर्ष की उम्र के 45.9 करोड़ युवा हैं, जिनमें 33.3 करोड़ युवा साक्षर हैं (नेशनल यूथ रीडरशिप सर्वे, 2009)। मजे की बात यह है कि पिछले दशक में कुल युवा आबादी तो 2 फीसदी की रफ्तार से बढ़ी (2001 में 39 करोड़ से बढ़कर 2009 में 45.9 करोड़ युवा), जबकि साक्षर युवाओं की आबादी 2.5 फीसदी की रफ्तार से बढ़ी (2001 में 27.3 करोड़ से बढ़कर 2009 में 33.3 करोड़)।इसी तरह युवा आबादी ग्रामीण भारत (2.11 फीसदी) की तुलना में शहरी भारत (3.15 फीसदी) में करीब एक फीसदी ज्यादा तेजी से बढ़ी। 13 से 24 साल की उम्र के युवाओं का सबसे बड़ा हिस्सा - करीब 39 फीसदी - उस उत्तर भारत में रहता है जिसे हम हिंदी पट्टी कहते हैं। दक्षिण भारत में इसका सबसे छोटा सिर्फ 19 फीसदी हिस्सा है। जबकि बाकी 21-21 फीसदी पूर्वी और पश्चिमी भारत में रहता है। इनमें से करीब एक चौथाई (27 फीसदी) युवा महानगरों में हैं और एक अन्य चौथाई (26 फीसदी) एक लाख से कम आबादी के छोटे शहरों में हैं। आज का युवा भारत एकरूप नहीं है। इसे हम तीन श्रेणियों में बा

नये भारत का मतलब

अगर कोई छोटा-सा कस्बा कब एक बड़ा शहर बन जाता है? क्या वाकई आकार का कोई महत्व है? भूगोल एक खास तरह की लत का नाम है. चर्बी से आकार बढ़ सकता है, लेकिन जरूरी नहीं कि इससे ताकत में भी इजाफा हो. कुछ मुल्क ऐसे भी हैं, जिनकी आबादी का चौथाई हिस्सा झुग्गी बस्तियों में इसलिए अपना जीवन गुजार देता है, क्योंकि उनमें ज़्यादा शहर बसाने की क्षमता नहीं थी. अमरीका की ताकत न्यूयॉर्क और वॉशिंगटन में नहीं, इस सच्चाई में है कि माइक्रोसॉफ्ट की उत्पत्ति सिएटल में हो सकती है और दुनिया के सॉफ्टवेयर उद्योग को कैलिफोर्निया के एक रेगिस्तान से भी संचालित किया जा सकता है. भारत तब तक कमजोर था, जब तक उसकी ताकत चार परंपरागत महानगरों तक सीमित थी. जब गरीब-गुरबों ने अवास्तविक उम्मीदों के साथ इन शहरी बसाहटों की तरफ बढ़ना शुरू किया तो वे शहर से ज़्यादा जख्म बनकर रह गए.यह तर्कसंगत ही है कि चारों मेट्रो शहरों को उनका आधुनिक स्वरूप देने में अंग्रेजों का अहम योगदान था, जबकि भारत की महान राजधानियां चाहे वह लखनऊ हो या मैसूर, पटना हो या जयपुर, ब्रिटिश राज के दौरान पतन के दौर से गुजर रही थीं. आधुनिक भारत का पुनर्निर्माण आर्थिक और रा

चाहता हूँ प्‍यार से

चाहता हूँ प्‍यार से पाँव वो पखार दूँ कौन दिलासा देगा नन्‍हीं बेटी नन्‍हें बेटे को, भोले बालक देख रहे हैं मौन चिता पर लेटे को क्‍या देखें और क्‍या न देखें बालक खोए खोए से, उठते नहीं जगाने से ये पापा सोए सोए से चला गया बगिया का माली नन्‍हें पौधे छोड़कर... ...चाहता हूँ आज उनको प्‍यार का उपहार दूँ, जी उठो तुम और मैं आरती उतार लूँ कर गयी पैदा तुझे उस कोख का एहसान है, सैनिकों के रक्‍त से आबाद हिन्‍दुस्‍तान है धन्‍य है मइया तुम्‍हारी भेंट में बलिदान में, झुक गया है देश उसके दूध के सम्‍मान में दे दि